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आ वे॒धसं॒ नील॑पृष्ठं बृ॒हन्तं॒ बृह॒स्पतिं॒ सद॑ने सादयध्वम्। सा॒दद्यो॑निं॒ दम॒ आ दी॑दि॒वांसं॒ हिर॑ण्यवर्णमरु॒षं स॑पेम ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vedhasaṁ nīlapṛṣṭham bṛhantam bṛhaspatiṁ sadane sādayadhvam | sādadyoniṁ dama ā dīdivāṁsaṁ hiraṇyavarṇam aruṣaṁ sapema ||

पद पाठ

आ। वे॒धस॑म्। नील॑ऽपृष्ठम्। बृ॒हन्त॑म्। बृह॒स्पति॑म्। सद॑ने। सा॒द॒य॒ध्व॒म्। सा॒दत्ऽयो॑निम्। दमे॑। आ। दी॒दि॒ऽवांस॑म्। हिर॑ण्यऽवर्णम्। अ॒रु॒षम्। स॒पे॒म॒ ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:43» मन्त्र:12 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे बुद्धिमान् जनो ! आप लोग (नीलपृष्ठम्) नीलगुण से युक्त पृष्ठ जिसका उस (बृहन्तम्) बड़े (बृहस्पतिम्) बड़ों के स्वामी (वेधसम्) बुद्धिमान् को (सदने) सभा के स्थान में (आ, सादयध्वम्) उत्तम प्रकार स्थित कीजिये। और हम लोग (सादद्योनिम्) धर्मसम्बन्धी कारण में स्थित होते और (दीदिवांसम्) निरन्तर प्रकाशमान देनेवाले (हिरण्यवर्णम्) तेजस्वी (अरुषम्) मर्मविद्या में स्थित होते हुए को (दमे) गृह में अर्थात् सभास्थान में (आ, सपेम) अच्छे प्रकार सपथों से नियत करावें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - वे ही मनुष्य राज्य करने और बढ़ाने को समर्थ होवें, जो धर्मिष्ठ और किये हुए उपकारों को जाननेवाले, कुलीन विद्वानों को सभा में स्थित करें तथा वहाँ स्थापनसमय में सपथों से आप लोग अन्याय को कभी मत करो, ऐसा प्रलम्भन करावें ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे धीमन्तो जना ! यूयं नीलपृष्ठं बृहन्तं बृहस्पतिं वेधसं सदन आ सादयध्वम्। वयं सादद्योनिं तं दीदिवांसं हिरण्यवर्णमरुषं दमे सभास्थान आ सपेम ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (वेधसम्) मेधाविनम् (नीलपृष्ठम्) नीलसंवृत्तं पृष्ठं यस्य तम् (बृहन्तम्) महान्तम् (बृहस्पतिम्) महतां पतिम् (सदने) सभास्थाने (सादयध्वम्) स्थापयत (सादद्योनिम्) सीदन्तं धर्म्ये कारणे (दमे) गृहे (आ) (दीदिवांसम्) देदीप्यमानं दातारम् (हिरण्यवर्णम्) तेजस्विनम् (अरुषम्) मर्मविद्यायां सीदन्तम् (सपेम) सपथैर्नियमयेम ॥१२॥
भावार्थभाषाः - त एव मनुष्या राज्यं कर्त्तुं वर्धयितुं च शक्नुयुर्ये धर्मिष्ठान् कृतज्ञान् कुलीनान् विदुषः सभायां स्थापयेयुस्तत्र स्थापनसमये सपथैर्यूयमन्यायं कदाचिन्मा करिष्यथेति प्रलम्भयेयुः ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी धार्मिक व उपकार जाणणाऱ्या कुलीन विद्वानांना (राज्य) सभेत स्थित करतात. तेथे चांगल्या मार्गाचा अवलंब करा व अन्याय करू नका, अशी शिकवण देतात. तीच माणसे राज्य करण्यास व वाढविण्यास समर्थ बनू शकतात. ॥ १२ ॥